Roopdhyan Meditation Jagadguru Kripalu Ji Maharaj’s Stress Relief Technique

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Stress is now an inevitable aspect of life in the modern world that is characterized by a high level of speed. Our minds are always packed with facts, demands, and anxieties, whether it is personal problems or work-related matters. One of the sacred spiritual leaders and philosophers is Jagadguru Kripalu Ji Maharaj who also established a special method of achieving inner peace Roopdhyan Meditation. This is an old but effective method which helps one to reconnect with his inner being resulting in psychological clarity, emotional equilibrium and eventual joy. The Essence of Roopdhyan Meditation The name of Roopdhyan came about through the Sanskrit name Roop (form) and Dhyan (meditation) which is the process of meditating about the form of god in love and devotion. Jagadguru Kripalu Ji pointed to the fact that it is not only the work of emptying the mind but filling the mind with divine thoughts and emotions as a part of true meditation. When picturing the beautiful shape of the Divine a...

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज: भारत की आध्यात्मिक धरोहर

भारत सदा से विश्व का आध्यात्मिक गुरु रहा है और आज भी है। समस्त महान मनीषी, साधु संत, त्रिकालदर्शी ऋषि और मुनियों को जन्म देने का सौभाग्य भारत को ही मिला है। इसी श्रृंखला में अखिल विश्व के सामने अपने अप्रतिम, अलौकिक व अखण्ड ज्ञान की पताका फहराने वाले जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने भारत देश के उत्तर प्रदेश में स्थित मनगढ़ ग्राम में जन्म लेकर भारत की पवित्र वसुंधरा को धन्य किया।

धन्यातिधन्य है भारतभूमि जहाँ समय-समय पर स्वयं भगवान् अवतार लेकर अनेक मंङ्गलमय स्वरूप धारण करते हैं। अनेक प्रकार की लीलायें करते हैं जिनका श्रवण, कीर्तन स्मरण दैहिक, दैविक, भौतिक तापों से तप्त जीवों के लिये शाश्वत सुख प्राप्ति का साधन है। कभी-कभी सच्चिदानन्द स्वरूप प्रभु स्वयं न आकर अपनी किसी शक्ति को पृथ्वी पर भेज देते हैं, जो देशकाल परिस्थिति के अनुसार गुरु रूप धारण करके जीवों को उनकी दयनीय दशा से उबार कर उन्हें भगवत्प्रेम और भगवज्ञान प्रदान करते हैं।

देशकाल परिस्थिति के अनुसार उनका बाहरी रूप रंग भिन्न होते हुए भी लक्ष्य एक ही रहता है - जीव कल्याण। आत्मप्रयोजनाभावे परानुग्रह एव हि (लिंग पुराण) - महापुरुषों का अपना कुछ भी कार्य शेष नहीं रह जाता वे कृतकृत्य हो जाते हैं। आत्माराम पूर्णकाम परम निष्काम पूर्णानन्द अनुभव करते हुए वे जो भी कार्य करते हैं वह केवल परोपकार के लिए ही करते हैं। जीवों को अनादि काल से माया के बन्धन से छुटकारा दिलाकर भगवान् की ओर सन्मुख करना यही उनके अवतार का प्रयोजन होता है।

उदाहरणार्थ आदि जगद्गुरु शंकराचार्य भगवान् शंकर के अंशावतार माने जाते हैं। जगद्गुरु श्री निम्बार्काचार्य श्री कृष्ण चन्द्र के कोटि सूर्य समप्रभा वाले सुदर्शन चक्र के अवतार माने जाते हैं। जगद्गुरु श्री रामानुजाचार्य आदि शेष के अवतार माने जाते हैं और जगद्गुरु श्री माध्वाचार्य के रूप में भगवान् श्री नारायण की आज्ञानुसार भक्ति सिद्धान्त के रक्षार्थ एवं प्रचारार्थ स्वयं श्री वायुदेव ने ही अवतार लिया।

इसी प्रकार ब्रज महारसिक भी भगवान् की किसी न किसी शक्ति का ही अवतार होते हैं। जैसे स्वामी श्री हरिदास जी श्री राधारानी की अष्टमहासखियों में से ललिता सखी का अवतार, स्वामी श्री हित हरिवंश जी भगवान् श्री कृष्ण की मुरली का अवतार इत्यादि। चैतन्य महाप्रभु राधाकृष्ण का मिलित अवतार माने जाते हैं।

यहाँ भक्तियोगरसावतार जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के अलौकिक चरित्र का निरूपण हो रहा है जिन्होंने भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व को वैदिक ज्ञान से आलोकित करके दिव्य प्रेम का सन्देश देकर यह सिद्ध कर दिया कि भारत सदैव आध्यात्मिक विश्व गुरु के पद पर आसीन रहा है और रहेगा। वेद, शास्त्र, पुराण, गीता, भागवत, रामायण में जो असीम ज्ञान भरा हुआ है वह सभी जाति, सभी सम्प्रदायों, सभी धर्मों के लिए है। जब उस ज्ञान का सही-सही प्रकटीकरण नहीं होता अथवा धार्मिक मान्यतायें लुप्त हो जाती हैं, तब दम्भ, अनाचार, पापाचार, दुष्टाचार बढ़ जाता है। ऐसे में अकारण करुणा के सागर भगवान जीवों पर अनुग्रह करके या तो स्वयं आते हैं अथवा अपनी किसी शक्ति को गुरु रूप में भेज देते हैं भटके हुए जीवों का मार्ग दर्शन करने के लिये।

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज का अवतरण ऐसे समय में ही हुआ जब दम्भ और पाखण्ड का बोलबाला बढ़ता जा रहा था। धर्म का वास्तविक स्वरूप विकृत हो गया था। वेदों के अर्थ का अनर्थ करके धर्म के नाम पर दलितों का शोषण हो रहा था। एक ओर देशभक्त स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे थे तो दूसरी ओर आध्यात्मिक समाज किसी क्रान्तिकारी महापुरुष की प्रतीक्षा कर रहा था जो सनातन वैदिक धर्म को प्रतिष्ठापित करके, भारतीय ऋषि परम्परा को जीवन्त करके, ज्ञान और भक्ति द्वारा जीवों को माया से मुक्त कराये। धर्म के नाम पर पण्डित वर्ग द्वारा जाति-पाँति के भेदभाव को दूर करके सार्वभौमिक आध्यात्मिक मार्ग प्रशस्त करे।

वह ऐतिहासिक स्वर्णिम क्षण आ ही गया जब भक्ति-धाम मनगढ़ में शरत्पूर्णिमा की शुभ रात्रि में माँ भगवती की गोद में एक नन्हें बालक ने आँख खोली। जो कालान्तर में जगद्गुरु कृपालु नाम से विख्यात हुआ और जिसने समस्त शास्त्रों, वेदों, उपनिषदों, पुराणों, भागवत तथा अन्यान्य धर्मग्रन्थों के सार स्वरूप ऐसा सिद्धान्त प्रस्तुत किया जो सभी जाति, सभी सम्प्रदाय, सभी धर्म वाले लोग अपना सकें।

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज को काशीविद्वत्परिषत् द्वारा सार्वजनिक रूप से भक्तियोगरसावतार कहकर सम्बोधित किया गया। श्रीराधारानी की कृपाशक्ति का ही अवतरण जगद्गुरूत्तम रूप में भक्ति धाम मनगढ़ में हुआ, जिन्होंने श्री गौरांग महाप्रभु के समान ही अधिकारी अनधिकारी सभी जीवों को बरबस ब्रजरस से सराबोर किया। गौरांग महाप्रभु के सिद्धान्तों का सविस्तार प्रतिपादन करते हुए उनका विविध रूपों में प्रचार प्रसार किया।

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने अपने ज्ञान, भक्ति और प्रेम से न केवल भारत बल्कि सम्पूर्ण विश्व को आलोकित किया। उनके द्वारा प्रस्तुत सिद्धांत और शिक्षाएं आज भी हमें यह बताती हैं कि भारत सदैव आध्यात्मिक विश्व गुरु के पद पर प्रतिष्ठित रहा है और रहेगा।

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