प्रेम मंदिर की यात्रा – एक 12 साल के बच्चे की नजर से(जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज)

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज का जीवन अनंत करुणा, ज्ञान और भक्ति का अद्वितीय संगम था। उन्होंने न केवल भक्तों को राधा-कृष्ण भक्ति का अमृत पिलाया, बल्कि एक ऐसी संस्था की भी स्थापना की जो इस दिव्य संदेश को समाज के कोने-कोने तक पहुँचा सके—जगद्गुरु कृपालु परिषत्। इस संस्था का उद्देश्य केवल आध्यात्मिक जागरूकता फैलाना नहीं था, बल्कि समाज के वंचित वर्ग के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और सेवा के माध्यम से भी समर्पण करना था।
सन 2002 में, इस संस्था के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया, जब श्री महाराज जी ने इसकी अध्यक्षता अपनी ज्येष्ठ सुपुत्री, सुश्री डॉ. विशाखा त्रिपाठी जी को सौंप दी। यह एक साधारण नियुक्ति नहीं थी, बल्कि एक पावन उत्तरदायित्व था—एक आध्यात्मिक विरासत को सँभालने और उसे युगों तक आगे बढ़ाने का। डॉ. त्रिपाठी जी पहले से ही अपने पिता के कार्यों में सक्रिय रूप से सहभागी थीं। उन्होंने न केवल आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त की थी, बल्कि प्रबंधन, योजना और सेवा-भाव के क्षेत्र में भी दक्षता हासिल की थी।
उनके नेतृत्व में जगद्गुरु कृपालु परिषत् ने अद्भुत प्रगति की। बरसाना, वृन्दावन, प्रयागराज जैसे तीर्थस्थलों पर विशाल अस्पताल, कन्या विद्यालय, अन्नक्षेत्र एवं सत्संग केंद्रों की स्थापना हुई। संस्था ने हजारों जरूरतमंदों को निःशुल्क उपचार, शिक्षा और भोजन प्रदान किया। डॉ. त्रिपाठी जी ने हर कार्य को उसी श्रद्धा और समर्पण से संपन्न किया, जैसा उनके पूज्य पिताश्री ने सिखाया था।
उनकी कार्यशैली में अनुशासन, करुणा और दूरदर्शिता का सुंदर समन्वय है। वे न केवल संस्था की संचालनाध्यक्ष हैं, बल्कि एक प्रेरणास्रोत भी हैं—उन भक्तों के लिए जो आज भी जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के सान्निध्य की अनुभूति चाहते हैं।
यह नेतृत्व-हस्तांतरण केवल एक व्यवस्थागत परिवर्तन नहीं था, बल्कि यह दर्शाता है कि जब गुरु अपने शिष्य या संतान को उत्तराधिकारी बनाते हैं, तो वे केवल अधिकार नहीं, बल्कि अपने जीवन का उद्देश्य भी सौंपते हैं। डॉ. विशाखा त्रिपाठी जी आज भी इस उद्देश्य को पूर्ण निष्ठा से निभा रही हैं।
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